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दुर्गा दास--मुंशी प्रेमचंद

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रात एक पहर व्यतीत हो चुकी थी। गंभीरसिंह वीर दुर्गादास के पास आया और बोला महाराज, सेना तैयार है, कूच की आज्ञा दीजिए। इतने में कहीं दूर से डंके की आवाज सुनायी दी। दुर्गादास चौकन्ना-सा गढी के बाहर आया। अब तो डंके की चोट के साथ-साथ जय धवनि भी सुनायी पड़ने लगी महाराज राजसिंह की जय!

 अजीतसिंह की जय! मारवाड़ की जय! वीर दुर्गादास का मनमयूर घंटाटोप सिसौदी सैन्य देखकर नाचने लगा। समझ गया कि उदयपुर के महाराज ने मेरे पत्र के उत्तार में यह सेना भेजी है। अगवानी के लिए आगे बढ़ा। राणा राजसिंह का ज्येष्ठ पुत्र जयसिंह वीर दुर्गादास को आते देखकर घोड़े से उतर पड़ा और प्रेम से गले मिला। कुशल प्रश्न के बाद दुर्गादास ने कहा – ‘ठाकुर साहब! 


यदि थोड़ी देर आप और न आते, तो हमारा लश्कर जोधपुर के लिए कूच कर चुका था।जयसिंह ने कहा – ‘क्यों? हमारा तो मन था। कि पहले अजमेर पर छापा मारा जाय; परन्तु आपने क्या सोचकर मुट्ठी-भर राजपूतों के साथ जोधपुर पर धावा करने का विाचार किया? दुर्गादास ने कहा – ‘भाई जयसिंह! मैं जोधपुर जाने के लिए विवश था।ठाकुर महासिंहजी अपने कुटुम्ब सहित शत्रुओं के हाथ पकड़े गये। इस समय वे जोधपुर में हैं, और ठाकुर साहब को फांसी की आज्ञा हो चुकी है। अब आप ही बताइये ऐसे समय में हम लोगों का क्या धर्म हैं?महासिंह का हाल सुनते ही जयसिंह जोश में आ गया, बोला भाई दुर्गादास! अब हम लोगों को यहां एक क्षण भी विश्राम करना उचित नहीं। हम अपने साथ दस हजार सवार और पच्चीस सवार पैदल सेना लाये हैं, इसका शीघ्र ही प्रबन्ध करो। वीर दुर्गादास ने सब पचास हजार पैदल एकत्र सेना के पांच भाग कर डाले। तीन हजार सवार और सात हजार पैदल सेना का नायक मानसिंह को बनाया। इसी प्रकार अन्य चारों भागों को क्रमश: जसकरण, केसरीसिंह, जयसिंह और करणसिंह को सौंपा। आप सारी सेना का निरीक्षक बना और अपनी रक्षा के लिए तेजकरण और गंभीरसिंह को दाहिने-बायें रखा।


कूच का डंका बजा, जय-घोष से आकूश गूंज उठा। राजपूत वीर रणचण्डी की पूजा करने के लिए जोधपुर की ओर चल दिया; वीर दुर्गादास के समान सब राजपूतों ने अपने देश स्वतन्त्रा करने की सौगन्ध ली थी। सब ही देश पर मर मिटने के लिए तैयार थे। सेना में कोई ऐसा राजपूत न था।, जिसे स्वदेशाभिमान न हो। रात-भर चलने पर भी किसी को जोश के कारण थकावट न आई। भोजनों की किसी को इच्छा न थी, इच्छा थी कि घमासान युद्ध की। दुर्गादास ने सवेरा होते ही एक घने पहाड़ी प्रदेश में पड़ाव डाला। दो घड़ी दिन बाकी था।, कूच का डंका बजा और सेना चल दी। रात्रिा के पिछले पहर जोधपुर की चौहद्दी पर जा पहुंचा। वीर दुर्गादास के आज्ञानुसार जयसिंह ने गढ़ का पूर्व द्वार और करणसिंह ने पश्चिमी द्वार घेर लिया जिसमें न तो किले से कोई सेना बाहर आ सके और न बाहर से भीतर ही जा सके। बस्ती की चौकसी के लिए केसरीसिंह अपनी दस हजार सेना लेकर डट गये। ऐसे व्यूह-रचना से दुर्गादास का केवल यही अभिप्राय था। कि मुगलों को किसी तरफ से किसी प्रकार की सहायता न मिल सके। शेष दो भाग सेना बाहर से आने वाली मुगल सेना की रोक के लिये और थकी हुई राजपूत सेना की कुमुक के लिए थी। राजपूत भी जोश में भरे थे रात का पिछला पहर भी छापा मारने के लिए अच्छा था।कोई मुगल सरदार शौच के लिए गया था।, तो कोई नमाज पढ़ रहा था।सारांश यह कि सब लोग गाफिल थे। जितना समय उनको सजग होने में लगा, उतना ही समय राजपूतों को किले का फाटक तोड़ने में लगा। दीवार टूटते ही राजपूत सेना भीतर घुसी और घमासान मार-काट होने लगी। किले पर मारू बाजा बजने लगा। रणचंडी थिरक-थिरककर भाव दिखाने लगी! 'अल्लाह हो अकबर' की तरफ और 'हर-हर महादेव' की दूसरी तरफ से आवाजें गूंजने लगी। जोशीले वीर राजपूतों की दुतरफा मार ने मुगलों के पैर उखाड़ दिये।


मुगल सरदार दिलावर खां ऊंचे स्वर से मुगल सिपाहियों को जोश दिलाने के लिए कहने लगा 'नमकहरामी गुनाह है। गुलाम बनकर रहने से मौत बेहतर है। अहले इस्लाम! उन्हें कसम कुरान मजीद की है, जो जीते जी मैदान से भागे।' मुगलों में एक क्षण के लिए फिर जोश पैदा हो गया। लौटकर भूखे बाज की तरह राजपूत सेना पर टूट पड़े। वह समय पास ही था। कि राजपूत्र त्रहि-त्रहि करके भागे; परन्तु बनाई हुई सेना लेकर तुरन्त ही वीर दुर्गादास आ पहुंचा। दोनाें ओर चम-चम बिजली-सी तलवारें चमक रही थी। बाण चल रहे थे। जीत के मारे राजपूत 'हर-हर महादेव' करते हुए आगे बढ़ रहे थे। इतने में किसी अन्यायी मुगल ने वीर दुर्गादास पर पीछे से तलवार का वार किया। ईश्वर की कृपा थी कि गंभीरसिंह ने देख लिया, नहीं तो वीर दुर्गादास की जीवन-लीला यहीं समाप्त हो जाती। गंभीर ने उस दगाबाज को इतने जोर से धक्का मारा कि वह अपने को किसी प्रकार संभाल न सका और धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ा। गंभीर तुरन्त उसकी छाती पर बैठा। अपनी जान संकट में देख उसने दुर्गादास की दुहाई दी। वाह रे दया वीर! ऐसी नीचता का काम करनेवाले मुगल को भी तुरन्त प्राण-भिक्षा दे दी। जब मुगल सेना ने गंभीर को उस मुगल सरदार की छाती पर चढ़ते देखा तो 'इनायता खां मारा गया' का शोर मच गया। मुगल सिपाही अपने ही घायलों को रौंदते हुए भागने लगी। वीर दुर्गादास चकराया हुआ खड़ा था। यह इनायत कौन? इनको मैंने तो देसुरीगढ़ के द्वार पर मारा था।तब भेद खुला कि इनायत खां एक सिपाही को जिसकी सूरत उसकी सूरत से मिलती थी, अपने कपड़े पहनाकर देसुरी से भाग गया था।यही नकली इनायत खां वहां मारा गया था।।


सहसा ऊपर से दिलावर खां ने ऊंचे स्वर से पुकारकर कहा – ‘'दुर्गादास! अगर महासिंह की जान बचाना चाहते हो, तो अभी अपनी सेना किले से बाहर ले जाओ।' दुर्गादास ने ऊपर देखा तो दुष्ट दिलावर खां ने महासिंह के गले में फांसी की रस्सी डाल रखी थी। वीर दुर्गादास की आंखों में आंसू भर आये और तुरन्त ही राजपूत सेना को किले से बाहर निकल जाने की आज्ञा दी। महासिंह ऊपर से दुर्गादास को ललकार कर रहा वीर दुर्गादास! क्यों भूल रहे हो, क्या हमारे प्राण दूसरे राजपूतों के प्राणों से अधिक मूल्यवान है? क्या हमारे प्राण दूसरे राजपूतों के प्राणों से अधिक मूल्यवान है? क्या हमको अमर समझ रखा है? थोड़ी देर के लिए सब ही संसार में आये हैं, एक दिन मरना अवश्य है, इसलिये अपनी विजय को पराजय में न बदलो। महासिंह दुर्गादास को उत्तोजित कर रहा था। और दिलावर गले में पड़ी रस्सी में झटका देने को तैयार खड़ा था।गंभीरसिंह अपने क्रोध को अधिक समय तक दाब न सका; परन्तु इनायत खां को सामने खींच लाया और बोला अच्छा दिलावर खां! यही करना चाहते हो तो करो। हम भी जितने मुगल सरदार हमारे बन्दी हैं, सबको महासिंह के बदले में तुम्हारी ही आंखों के सामने ऐसी बुरी तरह मारेंगे कि पत्थर की आंखें भी रो देंगी। अब तो दिलावर खां के हाथ-पांव फूल गये। गंभीरसिंह को उत्तार न दे सका। वह जानता था।,इनायत खां का राज-दरबार में कितना मान है। यदि इनायत खां महासिंह के बदले में मारा गया, तो मेरी भी कुशल नहीं। तुरन्त महासिंह के गले से रस्सी निकाल फेंकी और बोला वीर दुर्गादास, मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि महासिंह को अब किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचाया जायेगा और यदि सांयकाल तक बादशाह का कोई आज्ञा पत्र न आया, तो किला आपके अधीन करके सन्धिा कर लूंगा। व्यर्थ के लिये मैं बहुमूल्य रत्नों को मिट्टी में नहीं मिलाना चाहता

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